श्री राम जय राम जय जय राम श्री राम जय राम जय जय राम
सच्चिदानंद भगवान की जय। सनातन धर्म की जय।
अभी-अभी आप बहुत सुंदर कथा सुन रहे थे। मेरे को भी किसी ने एक प्रश्न दे दिया है। तो प्रश्न तो लोगों के बहुत होते हैं। पर जो सबके काम का है। उसका उत्तर दे देता हूं। क्योंकि एक के काम का है उसे अलग पूछना चाहिए। जो सबके काम का है वह एक पूछे तो भी सबके लिए बताया जा सकता है। जिस साधक ने जो लिखा है वह मैं पढ़ देता हूं।
" मेरा नाम लिख के शतशत नमन। पंच महाभूतों के सात्विक भाग वायु से मन बना। संसार के सभी पदार्थ संकल्प रूप हैं। मन भी संकल्प रूप है। संकल्प को काटने पर ही ज्ञान बीज का उदय होता है। ज्ञान होता है। ज्ञान बीज का उदय होता है। तो संकल्प को कैसे काटा जाए और किससे काटा जाए यह बात समझ में नहीं आती। यह प्रश्न है। एक साधन है .... "
काम को या संकल्प को असंकल्पात जयत कामम इच्छाओं को काम को असंकल्प से मन को जीतने के लिए अमन कैसे हो? संसार और मन यह एक चीज है। प्रश्नकर्ता के द्वारा भी स्पष्ट है और हम और भी कहा करते हैं। मन माया प्रकृति जगत चार नाम एक रूप मन ही जगत है। जगत ही मन है। यू तो ज्ञानियों की भक्तों की भाषा में बिल्कुल उल्टा है। हरि रेव जगत जग देव हरि। अभी ये कि जगत ही मन है। मन ही जगत है। मन है तो जगत है। अब इस संकल्प को कैसे काटा जाए और किससे काटा जाए। तो इस जगत को काटने के लिए जगत को काटने के लिए क्योंकि मन और जगत एक है। गीता में एक वाक्य है असंग शस्त्रे दृढ़ चित्वा असंग शस्त्र के द्वारा इससे मेरा संबंध नहीं है। संबंध मन को जीवन देता है। जगत का संबंध मन को जीवन देता है और मन बार-बार जगत को खड़ा करता है। और इनका प्राण संग है। यू तो संग भ्रांति भी है। पर अभी हम वो नहीं कहकर यही कहेंगे। असंग शस्त्रे दृढ़ चित्वा थोड़ी देर ये कि मैं इससे असंग हूं। इससे मेरा कोई संग नहीं है। बार-बार लगेगा यह मेरा है। इस धारणा को काटिए। यह मेरा नहीं है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। ऐसा सोचने से संबंध कट जाएगा। जैसा सोचोगे वैसा ही हो जाता है। यह आज के लोगों का भी है। जैसा सोचोगे वैसे ही बन जाओगे। तो यह सोचो कि इससे मेरा संबंध नहीं है जगत से। पहले की याद करके मत सोचो कि कहने से क्या होगा? सोचने से क्या होगा? इसका संग है। यह पुरानी आदत छोड़कर के इस मंत्र को समझो। यह मेरा नहीं है। इससे मेरा कोई संग नहीं है। निर ममे विभते ममेति बते जंतुर यह मेरा है। सोचने से ही बंध जाते हैं। मेरा सोचते ही मन मजबूत हो जाता है। जहां कहा मेरा नहीं। यह मेरा प्याज की तरह है। प्याज का छिलका हटाते जाओ ना तो मेरे में ही सब निकल जाएगा। मैं बचेगा ही नहीं। दो चीजें हैं ही नहीं। प्याज का छिलका नहीं। छिलका ही प्याज है। आप समझते होंगे प्याज में छिलका लगा है। प्याज क्या है जिसमें छिलका लगा है। यदि जगत को निकालना शुरू करो ना मैं से या मन से तो मन ही नहीं बचता। मन का जीवन यह जगत है और बार-बार मन को जीवन मिल जाता है इसको अपना बनाने से मेरा मानने से इसको है मानने से इसको अपना बनाने की चेष्टा इसलिए इसको अपना बनाने की चेष्टा का त्याग करो।
यह असंग शस्त्र असंगता के हथियार से कामना को काटो। कामना के कटते ही या संग के कटते ही या संग भ्रांति के निवत्त होते ही असल में संग भ्रांति है। यह वेदांत का सिद्धांत है। संग है नहीं संग भ्रम है। पर यदि आपको लगे तो भ्रम नहीं लगता। यही दिक्कत है। जब रस्सी में सांप दिखता है तब किसी को भ्रम लगता है। भ्रम नहीं लगता। यही बात है। इसी तरह से जैसे रस्सी में सर्प भ्रम है पर लगता नहीं। भाग में लगता है। ऐसे ही संग भ्रम है। यह हमें नहीं लगता। हमें लगता है सचमुच हमें संग है। 15 वे अध्याय में भी एक श्लोक है। निर्माण मोहा जित संग दोष अध्यात्म नित्या विनिमा द्वंद विुक्त सुख दुख संग गच्छ मूढ़ा पद असल में निर्माण मोह जित संग दोष संग दोष को जीतो साधना की दृष्टि से संग का दोष संग का दोष है जो आपको लगता है कि ऐसा हो गया ये हो गया ये नहीं होना यदि ये सचमुच होता तो खो नहीं सकता
प्रश्नकर्ता ने यह भी कहा संकल्प मन और जगत एक ही है तो पहले संकल्प को जीतो असंकल्पात असंकल्पात जयत कामम आपको दिक्कत क्या आती है आप सोचते हो सारे दिन कोई संकल्प ना उठे तो ऐसा तो कोई साधु भी नहीं है इसलिए पहले थोड़ी देर के लिए संकल्प का त्याग करो थोड़ी देर के लिए असंकल्पात थोड़ी देर संकल्प ना करो या संकल्प उठ जाए उस संकल्प को मेरा संकल्प है। यह मत सोचो। ख्याल में ना लाओ। जबान से ना बोलो। नहीं। कई
बार लोग कहते हैं यह मत बोलो कि मन मेरा है। संकल्प मेरा है। जबान से नहीं अंदर से जरा पूछो कि यह संकल्प तुम्हारा है। अब यह भी लगता है। जब संकल्प मुझे मेरा लगता है तो उसको जीवन मिल जाता है। जैसे लहर को जीवन पानी के होने से मिल जाता है। यदि पानी का सहारा ना मिले तो लहर मर जाएगी। तो हमारे सहारे से मन जीवित है। जैसे लहर में भी हवा ही काम करती है। वायु के वेग से पानी में लहरें बनती है। हवा चलती है तो लहर बनती है। और प्रश्नकर्ता ने यह कहा कि वायु के सत्वंश से मन बना है। अर्थात वायु रूप है। इसीलिए चलता रहता है। तो वायु तो स्थिर हो जाए थोड़ी देर ना चले या धीमी हो जाए तो मालूम नहीं पड़ती। चलती है तो मालूम पड़ती है। शरीर से टकराती है, पेड़ से टकराती है। मालूम पड़ती है। तो हम अपने मन को थोड़ी देर के लिए यह कि हमें कुछ चाहिए नहीं। बस यह मंत्र है समझो। यह ढंग है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब आपकी आदत पड़ी है। तो इस आदत को तोड़िए। हमको कुछ नहीं चाहिए। थोड़ी देर बैठ जाओ। बस यह अंदर से सोचो। जबान से नहीं बोलना। जब आपको अंदर से लगे ये इच्छा मेरी हुई। इच्छा होगी। हमें पता है। तो तुरंत अंदर से सोचो। ये इच्छा मेरी नहीं है। यह मन में है। जहां तुमने साथ मन को नहीं दिया। मन मरा। असल में जैसे पानी की सत्ता ले ही लहर जीवित होती है। हमारे बिना साथ के मन जीवित नहीं रह सकता। पर हम मन को अपना कहते हैं। जहां मन को अपना कहा, संकल्प को अपना कहा या मेरी इच्छा है। यह मेरी इच्छा है। बस तुम्हारा साथ हो गया। तुम कहीं गहरे से कहो गहरे से कि यह इच्छा मेरी नहीं है। अब यह कह पाओगे कि नहीं?
मैं बहुत बार बोलता हूं सिख समाज में एक शब्द बोलते हैं कि बोले सो निहाल। तो यही बात अभी समझ लो। वहां बोले सो निहाल सत श्री अकाल। हम यह कहेंगे बोले सो निहाल। अंदर से बोल दे कि यह मेरा नहीं है। मेरी इच्छा नहीं है। बोल के देख लो तुरंत ही शांति मिल जाएगी। की जय। पर तुम अंदर से बोलोगे ही नहीं। तुम्हें गुरु पर शास्त्र पर भरोसा ही नहीं। तुम्हें अपनी अकल पर भरोसा है। अब अकल इतने दिन की माया से भ्रमित है कि वह वही सोचती रहती है। हमने सुना है कि यदि जानवर किसी बकरी को दांत मार दे और कोई गडरिया आ जाए और वो जानवर जंगली भागे छोड़ के तो बकरी उधर ही को भागती है। बचाने वाले की तरफ नहीं जिसने दांत मारा। ऐसे ही कमजोर आदमी किसी दादा के दबाव में आ जाए तो वो जो चाहे वैसे ही बोलता है। तो ये तुम्हारा जो सोच है ये मन के अनुसार तुम कहते रहते हो। यह अभी मन मत है। गुरु मत नहीं है। यह गुरु बुद्धि नहीं शास्त्र की सोच नहीं है। यह तुम्हारी अपनी सोच है। इसलिए अपनी सोच का त्याग करके शास्त्र की दृष्टि से कि यह मैं नहीं हूं। एक गीत की लाइन बोला करता था। मैं नहीं मेरा नहीं। यह तन किसी का है दिया। जो भी मेरे पास है वह धन किसी का है दिया। और एक लाइन में यह भी है कि यह मैं मेरा मैं मेरा यह कहने वाला मन भी किसी का है दिया। यह मन मेरा नहीं है। यह मैं मेरा जो कहते हो ना ये ये सोच भी किसी ने डाल रखी है तुम्हारे अंदर। तो सबसे बड़ी साधना है पांच 10 मिनट एकांत में बैठकर यदि हिम्मत जुटा सको तो एक ही महामंत्र है ये जैसे रामायण का एक मंत्र है मंत्र महामणि विषय व्याल के मेटत कठिन कुवंक भाल के तो यह भी एक महामंत्र है कि इसका थोड़ी देर आप जाप कर सके कि मैं मन नहीं हूं मन मेरा नहीं है। यह मन में उठा संकल्प मेरा नहीं है। और यह संकल्प मेरा नहीं है तो इसकी पूर्ति में मेरी कोई रुचि नहीं है।
यदि संकल्प मेरा हो तो पूरा करना पड़ेगा। संकल्प मेरा नहीं पूरा हो या ना हो मुझे क्या? अभी अपने संकल्प की पूर्ति करके देखो अपने संकल्प की पूर्ति करके सुख मिलता है। अपने संकल्प की पूर्ति ना होने पर बोलो दुख मिलता है। अच्छा उनके संकल्प पूर्ति ना होने पर तुम्हें दुख मिलता है। क्यों? वो संकल्प तुम्हारा नहीं है। यह यह सबसे ऊंचा मनोविज्ञान है। यह मन को खत्म करने का विज्ञान है। या मनोविज्ञान का भी मनोविज्ञान जो मन को खत्म कर सकता है कि यह मन मैं नहीं हूं। यह मेरा नहीं है। इसकी इच्छा इसमें उठी इच्छा मेरी इच्छा नहीं है। फिर पूर्ति में जो रस की इच्छा है वो खत्म हो जाएगी। रस की भ्रांति इसलिए संग भ्रांति निवत्त होगी और भोग भ्रांति भी भोगता पने की भ्रांति भी निवत्त होगी। कर्ता पने की भोक्ता पने की अब शरीर में जो प्यास आदि लगी तुम्हें लगता है मेरे को लगी आप सोचते हो सोच लेंगे मेरे को नहीं लगी तो क्या फायदा ऐसे ही ना सब लोग पढ़े लिखे हो मुझे मालूम है तुम्हें लगता है प्यास लगी है यदि हम सोचे भी कि मेरे को नहीं लगी तब भी लगी तो है ही दर्द हो रहा है मेरे को नहीं हो रहा गरीबी है मेरे को नहीं है। असल में मेरे को नहीं है। सोचने के बड़े लाभ है। जैसे अभी जब आप धनी बनते हो तो धन को अपना बनाते हो कि लगता है अब मैं धनी हो गया। अच्छा धनी होने में पेट ज्यादा भरता है। ठंडी कम लगती है। माने धनी होना क्या है? धनी होना।
देखो एक लंबे समय से समाज में एक यह सिक्का चल रहा है। इसलिए वह बहुत हावी हो गया है। फकीर साधु महात्मा भले आज साधु भी ऐसे नहीं मिल रहे हैं। कलयुग का प्रभाव हमारे ऊपर भी चढ़ बैठा है। पर मैं ध्यान दो यदि जिन साधुओं के पास मांग के खाते थे, कुछ नहीं रखते थे, वह अपने को गरीब मानते थे क्या? गरीब गरीब क्या होता है? पूज्य भी मानते हैं, बड़े भी मानते हैं, बादशाह तक उनके चरण छूते हैं, दर्शन करते हैं और पैसा एक कौड़ी नहीं। वैसे तो शंकर के लिए लोग बोलते हैं। तीन लोक बस्ती में बसा दिए। आप बसे वीराने में और जाने क्या कौड़ी नहीं, खजाने में। अब खजाने में कौड़ी नहीं बताओ अब जिसके कौड़ी खजाने में ना हो और शिव हो अब बताओ असल में सोच बदलो ये जो सोचने का ढंग है वो नहीं बदलते धन बेकार नहीं है धनी होना बेकार है धन का बड़ा उपयोग है धन काम की चीज है। चाहे तुम्हारे हो, चाहे पड़ोसी के हो, चाहे किसी के हो, धन काम आता है। पदार्थ काम आते हैं। पर यह जो आपके मन के काम आ रहा है धन, आपको धन बड़े कहने को तो नहीं चाहिए ना। जरूरत भर का धन चाहिए कि बड़े कहने को भी चाहिए? अपने मन से पूछना मैं आपसे पूछना चाहता हूं झूठ भर नहीं बोलना मेरा काम है समझाना पर झूठ ना बोलो सच बोलते जाओ काम का पैसा हो बड़े कहने का ना हो फिर आपको कोई परेशानी आपके रहने का मकान हो बड़े आपका मकान देखकर लोग तुम्हें बड़े नहीं समझे या तुम खुद अपने मकान को देख के बड़े नहीं समझो अच्छा चलो चलो बना है पर आप मकान हो उनसे पूछो जिनके बड़े मकान हैं वो अंदर से बड़े हैं कि नहीं वो क्यों हो गए ये जो मन में बड़े होने का ख्याल है बस ये गलत है धन गलत नहीं है और ये संकल्प इच्छाएं आवश्यक है वो पैदा होती है वो तुम्हारी नहीं है तुम कभी कभी सोच के तो देखो जैसे बड़ा होना धन से नहीं पद से नहीं पद से काम करो राम राजा बनेंगे तो काम करेंगे भरत राजा बनके काम कर रहे हैं जनक राजा बनके काम कर रहे हैं राजा अभी हम कुछ बड़े होने के लिए बनते हैं काम करने के लिए बनो कोई बात नहीं और काम करो और तुम वैसे ही बने रहो ऐसा आदमी ढूंढो जैसे भरत की बात कह दूं प्रसंग में भरत होए न राज मदद विधि हरि हर पद पाए भरत को राजम नहीं हो सकता राज पाके नहीं भरत होए न राज मद कितना राज कौन विधि हरि हर पद पाए इतना बड़ा पद मिल जाए तो भरत वैसे ही रहेंगे मैं आपको भरत कह दूं यदि ऐसे हो जाओ आप बड़े मत बनो वैसे ही बने रहो काम करो काम करना चाहिए खूब धन बांटो सत्ता में बैठ के काम करो भगवान ने अपना उदाहरण दिया कि मुझे मुझे कुछ नहीं चाहिए नानवाव्यम त्रिशोके सुकिंचन और दूसरा उदाहरण दिया जनक का जनक आदि काम कर रहे हैं राज्य कर रहे हैं ये जनक का उदाहरण भगवान कृष्ण अर्जुन को दे रहे हम लोग तो साधुओं का देते हैं ना देखो वो पैसा नहीं छूता वो फलाना जंगल में रहता है लंगोटी में रहता है। भगवान कृष्ण उदाहरण जनक का दे रहे हैं कि वह भी परम सिद्धि को प्राप्त हो गए। कितने बड़े ज्ञानी हो गए। अष्टावक्र ने थोड़ा सा बताया और अष्टावक्र गीता पढ़िए। जनक की वाणी पढ़िए। क्या कोई साधु बड़े-बड़े ज्ञानी बोलेंगे जैसा जनक की अनुभूति है। अब जनक तो राजा राजा कहां बाधा बना? धन बाधा नहीं है। धनी होना बाधा है। शरीर आपकी मौत नहीं। मैं शरीर हूं। यह समझ मौत है। परीक्षित की सात दिन की कथा के बाद शरीर में नहीं फर्क पड़ा। परीक्षित की समझ में फर्क पड़ गया। बस तो पद हमारे ऊपर हावी ना हो। कोई पद में बैठते हैं। किसी के ऊपर पद बैठ जाता है। कोई धन की सवारी करते हैं। धन के ऊपर बैठे हैं। कई के ऊपर धन बैठा है। यदि धन आपके ऊपर ना बैठे। यह सचमुच विधि है। आप कुछ भी आप जैसे सरल है बने रह जाए। आप अंदर की सरलता खो देते हैं। आप अंदर की पवित्रता खो देते हैं। विनम्रता खो देते हैं। कुछ बन जाते हैं। यहां तक थोड़ा अच्छा काम करते हैं। उतने में बन जाते हैं। यह नहीं मानते कि कर्म परमात्मा ने जिससे जो कराना है करा रहा है। ठीक है? आप अंदर अलिप्त बने रह जाए। अलिप्त माने जैसे कुछ हुआ नहीं। आकाश में आंधी आती, तूफान आते, बादल आते, वर्षा होती, कोहरा पड़ता। आकाश को साफ करने कौन जाता है? बांदा के लोगों ने परसों बहुत कोहरा था। साफ किया है ना? नहीं साफ किया। लो दिखने लगता है। वो आता है। ये नहीं कहते आया नहीं कोहरा आया पर आकाश को तुम्हें भले ना दिखाई दे उतनी देर। पर आकाश को क्या छूता है? वो कोहरा गीला करता है। कपड़ों को कर देता है। जमीन को करता है। फसलों को नुकसान पहुंचा देता है। आकाश का क्या करेगा? यह सबके अंदर जो आत्मा है सर्व निवासी सदा अलेप है। हां इस आत्मा का अनुभव करो। एक विधि पूछी कैसे आप क्या है? यह याद करो। गच्छ मूढ़ा पद तत अमूढ़ लोग ज्ञानी लोग अव्यय पद को प्राप्त होते हैं और उन्होंने कहा ज्ञानोदय तब होगा जब संकल्प का भी यह संकल्प नष्ट हो मन खत्म हो तो ज्ञान होगा तो यह खत्म होने का मतलब क्या कुछ देर नहीं खत्म होगा एक सेकंड का मौका निकालो पंखा घूमता है आपको पहले नहीं दिखाएं। आजकल तीन पंखुड़ी के, चार पंखुड़ी के, पांच पंखुड़ी के भी पंखे हैं। ठीक है? तेज चलता हो पंखुड़ी गिनो। नहीं गिन पाओगे। अच्छा एक बार थोड़ी देर को रोक के गिन लो फिर चला दो। चला देने के बाद आप कहोगे कि पंखुड़ी नहीं है। पहिया है। पहिया है कि पंखुड़ी? एक बार ऐसे ही वह तिनका हम छोटे में थे और लुकआ खूना बोलते ऐसे करके ऐसे करते थे तो हमारी मां डांटती थी ये नहीं कर नहीं तो रात में मूटेगा उसका क्या संबंध मैं नहीं जानता पर ऐसे ऐसे करते वो गोला बन जाता एक बार रोक कर देख लिया आनंद के लिए गोला बनाओ लंबा बनाओ खेलो वहां बनता बनाता क्या है दिखता भर है दिख जाए देखने का आनंद ले लो हुआ कुछ नहीं ना गोला हुआ ना लंबा हुआ वो तो सिर्फ दिखता है इसी तरह से एक बार तिनके की तरह मन को रोक कर मन को ठहरा कर इसीलिए कहा जो मन की खटपट ट मिटे तो चटपट दर्शन होय मन की खटपट मिट गई तो चैतन्य आत्मा वहां मिल गया और एक बार मिल गया फिर खूब खटपट होती रहे आप सोचते हो खटपट बंद बनी रहे नहीं तिनका बंद बना रहे जरूरी नहीं भ्रांति हटाने के लिए तिनके का रुकना जरूरी है पंखुड़ियों को गिनने के लिए पंखा धीमा करना या रोकना जरूरी जरूरी है। इसके बाद चलता रहे तब भी भ्रांति नहीं होती। एक बार रस्सी देख ली पहले सांप देख के डर लगा भागने की या मारने की सोचा या तो मारने की या भागने की। अब टॉर्च से देख लिया कि रस्सी है। अब फिर टॉर्च बुझा दी। अब मारे कि भागे। अब दिखता पहले की तरह है। पहले की तरह है। पर पहले जैसा भ्रम था अब नहीं है। ऐसे ही यह मन और संसार एक बार असंग शस्त्र से काटकर अपने चित स्वरूप का अनुभव कर ले। फिर ये मन भी रहे संसार भी रहे। क्योंकि मन और संसार ना रहता तो फिर ज्ञान के बाद जो लोगों ने काम किया है, भाषण दिए हैं, ग्रंथ लिखे हैं, यह सब अज्ञानियों के लिखे ग्रंथ होंगे। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण जिन्होंने बोली, यह अज्ञानियों ने बोली। ब्रह्म सूत्र पर भाष्य अज्ञानियों ने किए। यह सब रहता है पर पहले जैसा अज्ञान भ्रम दुख नहीं रहता। इसलिए असंग शस्त्र से इसे काटो और मन को आ खेल समझो। रस्सी का सांप और भी देखो मैं क्या है? चैतन्य में मैं चैतन्य तत्व में मैं सर्प की तरह रस्सी में जैसे सर्प ऐसे ही चेतन में मैं यह मैं कुछ देर रह के देखो जैसे रस्सी का सांप भी जरा ध्यान देंगे तीन बातें बतानी है मंद अंधकार कम अंधकार में सांप दिखा वहीं से दूसरा निकला घोर अंधेरे में बहुत अंधेरे में कुछ नहीं दिखा कुछ दिखा ही नहीं बहुत अंधेरा था ना रस्सी दिखी ना सांप दिखा ना डर कुछ नहीं बहुत अंधेरा है मन अंधेरे में सांप दिखा और जब पूरा प्रकाश किया तो ना सांप दिखा और ना कुछ और बल्कि रस्सी दिख गई अंधेरे में कुछ ना दिखा मंद अंधकार में सांप दिखा पूरे उजेले में सिर्फ रस्सी दिखी ऐसे ही मैं अह अहंकार और मैं कब दिखा? जब मंद अंधकार था। जब घोर अंधेरा था तब मैं भी नहीं दिखा। घोर अंधेरा जानते हो? गहरी नींद। स्वप्न में दिखा। जागृत में मैं दिखा। स्वप्न में और जागृत में मंद अंधकार है। तो मैं है और मैं मैं माने सांप ही समझ लो। मरना जीना दुख समस्या कब जब मैं जब घोर अंधेरा गहरी नींद गहरी नींद माने घोर अंधेरा किसी को डर लगा हो तो कल शाम की सभा में पर्ची ले आए कि गहरी नींद में जब कुछ नहीं था तब भी मुझे डर लगा स्वप्न में लगेगा क्योंकि कुछ दिखा कुछ ना दिखे यहां तक कुछ जगत नहीं मैं हूं यह भी ना दिखे रस्सी बिल्कुल ना दिखे सांप भी ना दिखे इसका नाम घोर अंधेरा बिल्कुल ना दिखना घोर अंधेरा और रस्सी सांप की तरह दिखे ये मंद अंधेरा और रस्सी की रस्सी दिखे ये पूरा प्रकाश तो जब शुद्ध चैतन्य मय का अनुभव होवे ये ज्ञान अवस्था है और बिल्कुल कुछ ना पता चले सुसुप्त अवस्था है और मैं आदमी हूं पैदा हुआ हूं मर जाऊंगा ऐसा जब मैं लगे यह समझो स्वप है मंद अंधकार है मंद अंधकार माने ऐसा अंधेरा जिसमें कुछ दिखता है कम अंधेरे में कुछ दिखता है कि नहीं हां और बहुत अंधेरे में कुछ भी नहीं दिखता तो कुछ ना देखना माने पूरा अंधरा कब होता है? आपको होता है कि नहीं? हां। तुम्हारे जीवन में भी घोर अंधेरा होता है। जब ना मैं ना तू, ना ये, ना वो, ना सांप, ना बिच्छू, ना गरीब, ना अमीर, ना हिंदू, ना मुसलमान और ना पंडित, ना बनिया, ना जवान, ना बूढ़ा। कोई कोई बात ठीक है ना? ये होती है कि नहीं होती? मैं बोले तो नहीं जाता। हां देख लेना। देखो हमारी कथा में जीवन की बात कर रहे हैं। ऐसा मत समझो कि हम रामायण की ही कह रहे हैं, गीता की कह रहे हैं, उपनिषद की कह रहे हैं। हमारी कथा तुम्हारी कथा है। लोग राम की कथा कह रहे हैं, भगवान की कह रहे हैं। हम तुमको भगवान मानकर तुम्हारी ही कथा कर रहे हैं। और जिस दिन तुम समझ जाओ ना अपनी कथा। तुम राम की कथा समझना ही ना पड़ेगा। अपनी कथा से बेड़ा पार हो जाएगा। पर अभी तुम्हारी कथा नहीं अभी तो तुम्हारी व्यथा है। कथा से तो व्यथा मिट जाती है। जन्म मरण की व्यथा मेरे तेरे की व्यथा यद्यप ये गहरी नींद में भी जाती है। गहरी नींद में कोई व्यथा नहीं रहती। पर यह तो ऐसा ही है जैसे डॉक्टर बेहोश कर दे बीमार को। बेचारा परेशान था बेहोश कर दिया पागल को। एक अभी फोन आया है कि एक तिवारी तिवारी है हरिद्वार में वो थोड़ी गर्मी बढ़ गई है। तो हमने कहा अभी उनको नींद की दवा दे दो। बस यही इलाज है। और फिर धीरे-धीरे हमने कहा फिर कुछ और बताएंगे। तो एक यह इलाज भी है कि नींद आ गई समस्या हल पर नींद वाली समस्या हल जागते फिर खड़ी घोर अंधेरे में यदि कुछ नहीं दिखा और लौटते समय थोड़ा अंधेरा कम हुआ तो सांप दिख गया ना दिखने वाले को फिर कुछ दिख सकता है पर रस्सी दिख जाने वाले को फिर सांप नहीं दिख सकता इसलिए जगत ना दिखने से जगत का बाध नहीं होता। जगत ना दिखने से जगत झूठा नहीं होता। मैं के ना रहने से भी मैं नहीं मरती। फिर मैं खड़ी हो जाती है। पर यदि आत्म बोध से देखा जाए मैं तो कोई चीज ही नहीं है। ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या हां ब्रह्म सत्य है। और कुछ मैं तू जीव जीव की भ्रांति जीव जीव का भेद जीव जड़ का भेद जड़ जीव जीव का भेद यह सब भेद जो है यह काल्पनिक है। एक सत्य है। यह देख लेने के बाद नानत्व दिखता भी रहे। रस्सी देख लेने के बाद टॉर्च बुझाकर देखो आंखों से फिर लगेगा सांप जैसा दिख जाए अब क्या डर है एक कहानी मैंने कई बार बताई सच्ची है हूबहू सच्ची जब पंजाब का माहौल ठीक नहीं था उसके बहुत साल पहले एक सूरी परिवार मेरा शिष्य बना मकान की नींव मेरे से रखाई नीव रखी पूजा पूजन हुआ मकान बन गया फिर हर वर्ष उनके घर जाता और वो कुछ सेवा करते अंत में तो यह कहने उसका नाम ही रख दिया परमानंद भवन और वो कहते थे आप मालिक हो हर साल किराया ले जाया करो हम मकान मालिक हो किराएदार ये विनोद विनोद में चले जाते अब ये जब पंजाब का माहौल ठीक नहीं था सचमुच मेरे साथ चित प्रकाश मेरे साथ चेतन स्वामी चेतन स्वरूप और दो चार निखिल जैसे बड़े बड़े और बाल वाले थे। अह मैं भी चला गया दरवाजा खटखटाया खटखटाया और पता नहीं मेरे को हंसी सूझी खटखटा के जब वो निकली मैं साइड में छिप गया अब साधु मेरे चेले खड़े और वो तो घबरा गई घबरा गई देख के घबराई अब देख के घबराई तो इन्होंने कहा फाटक खोलो उन्होंने कहा नहीं बाबा यहां कोई नहीं है कहा हम तो अंदर आएगा ऐसे आएगा अब बेचारी और मैं तो समझू सब कुछ ना हो जाए हां ऐसे में हो जाता है तो जब घबराई तो उन्होंने कहा हम तो चाय पिएगा तो 20 का नोट उसने ऊपर से फेंक दिया जाओ बाबा चाय पियो जाके उन्होंने कहा हम तो बाहर नहीं हम तो अंदर ही आएगा अब मैंने सोचा कहीं हार्ट फेल ना हो जाए मैं सामने आ गया मेरे मेरे आते हंस गई फाटक खोला अंदर ले गई यह सच्ची घटना है चाय बना रही है फल काट रही है कहती है अभी धकधक बंद नहीं हुई एक बार स्वामी ध्यानानंद जी गाड़ी चला रहे थे हम जयपुर से दिल्ली आ रहे थे रीतांबरा थी एक दो सेठ थे उसमें पैसे वाले मूर्तियों को गए थे ना तो चाहिए थे ना सेठवेठ तो साथ में थे। इधर से ट्रक को क्रॉस किया। उधर से एक बस आ गई। अंधेरा हो गया था। और वो एकदम तेजी से ध्यानानंद ने किया तो लगभग लगभग गाड़ी में बैठे एक बार मर ही गए। लगभग और वो एक सेकंड का चूका कि ऐसे क्रॉस किया और गाड़ी वो आई। बच तो सब गए। पर सेठ ने कहा दिल्ली तक मेरी धड़कन बंद नहीं हुई। अब देखो मेरे आने के बाद अमृतसर में उनका भय चला गया। लेकिन यह जो शरीर है इस पर जो कंपन पैदा हो गई। जैसे बिच्छू को सांप को आप मार डालो मुंडी कुचल दो मर गया। फिर भी पूछ हिलाता रहता है। इसी तरह से जो डर के कारण भय पैदा होकर कंपन पैदा हो गए भय निवत्त हो गया अंदर ले गई अब भ्रम भी नहीं है भय भी नहीं है पर भ्रम और अज्ञान के कारण जो कंपन पैदा हो गए उनके जाने में देर लगती है। इसी तरह कुम्हार घड़ा बनाता है। जब घड़ा बनाते बनाते चाक धीमा होता है तो फिर चाक को घुमाता है। बनाते देखा कि नहीं? हमने देखा है। फिर घुमाता है। फिर घड़ा बनाता है। फिर धीमा हो जाए फिर घुमाता है। अब आखरी टाइम पर घुमाया और उसने घड़ा बना लिया। बर्तन बना लिया। अब चाक घूमता है वो बंद नहीं करता। क्योंकि बिजली तो खर्च नहीं हो रही। बना लिया। अब जितनी देर घूमता है घूमते घूमते अपने आप रुक जाएगा। ठीक है कि रोकना जरूरी है। पहले घुमाना थाकि कुछ काम था। अब काम नहीं है नहीं घुमाना। ऐसे ही ज्ञानी के कर्मों का प्रारब्ध जन्म भी देता है। कर्म चलता रहता है। जब ज्ञान हो जाता है उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। तब भी वह चाक की तरह कुछ दिन यह घूमता हुआ रहता है। फिर उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। अभी भी देखो बंदूक ले आ जाओ। हां ये जो धड़कन है ये शरीर के रहते रहेगी। लेकिन अंदर का अज्ञान भ्रम चला गया। तो शरीर रहते बीमारी है कोई तकलीफ है यह होती है पर समझ में आ गया मेरे स्वा में नहीं है मेरा स्व कैसा है जैसे सूर्य का रिफ्लेक्शन चंद्रमा का प्रतिबिंब कुएं में घड़ों में पड़ रहा है हिलता है लेकिन चंद्रमा अपनी जगह ज्यों का त्यों है ऐसे ही आत्मा अपनी जगह वैसे ही है रामायण के ही अनुसार जी रवि एक कोटि घट छाई यह मेरी चौपाई तो नहीं है ना तो जैसे घड़े में एक सूर्य होने पर करोड़ों घड़ों में उसकी छाया है। कोई हिलती है कोई पानी बह जाए तो गायब हो जाती है। पर यह सब दिखने पर होने पर भी सूर्य उससे कोई प्रभावित नहीं होता। इसी तरह से यह आत्म चेतन वस्तु अपने आप में मुक्त है। इसको बार-बार सोचना पड़ेगा। अब देखो आपकी तरह यहां पर भी दिखता है पर पहले जैसी भ्रांति नहीं है। पहले जैसी सोच नहीं है। शरीर ये भी नष्ट होगा। परीक्षित का नष्ट हुआ। राम भगवान जगते हैं, सोते हैं। रामायण पढ़ते जाओ, सोचते जाना। राम भगवान के देह है। राम भगवान के अंतःकरण है। वो जगते हैं, सोते हैं। पैर दबाते दबाते सोने जाते हैं और सुबह अरुण सिखा। सबसे पहले जगतपति जागे राम सुजान। तो देखो एक राम शरीर है दशरथ के बेटा एक राम भीतर है जो जगते सोते हैं और नियम से उठते हैं ड्यूटी समझते हैं अच्छी तरह से और फिर भी राम ना जगते हैं ना सोते हैं राम सच्चिदानंद दिनेशा त नहीं मोह निशा लवलेष असल में जब तक स्वरूप का सही विज्ञान जाएगा तब तब तक सचमुच कामना संकल्पों की जड़ नहीं कटेगी। इसलिए बिना ब्रह्म ज्ञान के जड़ नहीं कटती। और ब्रह्म ज्ञान होने के लिए कुछ देर के लिए संकल्प का त्याग चाहिए। कुछ देर को घर बार छोड़ना वैराग्य चाहिए। कुछ देर को काम छोड़कर सत्संग में बैठना चाहिए। कुछ देर को ध्यान करना चाहिए। ये सब करना है। पर एक करते एक समझ आ जाएगी कि करने से कुछ नहीं होता। जिन्होंने माना करने से मैं शुद्ध हुआ हूं। इसका मतलब नित्य शुद्ध मुक्त नहीं हूं। जो समझते हैं मैं अविनाशी हो गया। इसका मतलब पहले नाशी था। अब मैं ब्रह्म हो गया। इसका मतलब पहले मैं जीव था। जैसे स्वप्न से जागकर कोई कहे अब मैं बच गया। अब मैं बच गया। स्वप्न में मर रहा था। अब देखो क्या कहेंगे बात वो सही है एक ही जैसी। हम कहेंगे स्वप्न में मरना दिख रहा था। अब बचने का पता चला। ना मरा था ना बचा। बचा तो था ही पर उस समय मुझे सही सत्य दिख नहीं रहा था। झूठ ही मुझे सत्य लग रहा था। इसी तरह से संकल्प अपने लगते हैं। यह प्रकृति का कार्य है। यह सब गुणा गुर्त सजते ना गु्या करारम यदा दृष्टान पसति गुस परम वे मद भावम शोध गच्छति ये प्रकृति काम करती है जगाती है सुलाती है जवान पूजा करती है तुम क्या कर रहे हो लेकिन अभी तुम्हें करतापन है और इसीलिए एक उदाहरण दिया करता हूं कि ब्रह्मा को भी एक बार भ्रम हो गया अभिमान हो गया अहंकार हो गया अभी रामायण के द्वारा लोग सुनते नहीं कोई कह रहा उपज जासु हंसते विंच विष्णु भगवाना ये सब पैदा हुए हैं और वो शिव जी का शिव चतुरान देख डराई अपर जीव के लेखे माई अब देखो एक तरफ तुम मानते हो और तुम्हारी रामायण कहती है शिव जी को भी हो गए वो भी डरते हैं निडर कब होंगे तो एक बार ये भी कह दो एक को छोड़कर जो अभी अभी नीलम गायत्री के एक को छोड़कर सब डर जाते हैं सब जन्म मरण के चक्कर में तब छूटेंगे कैसे जैसे शिव स्मरण करेंगे हां ब्रह्मा सुमिरन करेंगे शिव चतुरानन देख डराई तो जिनको देख के सब डर जाते हैं माया को प्रपंच को संसार को काल को तो बचते कैसे हैं स्मरण से बचते जिसके स्मरण से ब्रह्मा चतुरानंद शिव बचते हैं। जिसके सुमिरन से नारद बचते हैं। जिसके सुमिरन से कोई संत बचता है। उसी के सुमिरन से तुम बचोगे। एक ही रास्ता है और कोई नहीं है। और जिसको मैं मान के कर्ता बन गए मरने लगे। देह को मैं माना तो चाहे ब्रह्मा हो चाहे विष्णु हो शिव हो इधर देखा तो डर आ गया उधर देखा तो डर चला गया एक ही रास्ता है तो देहाभिमान से भय आता है और ब्रह्म ज्ञान से भय जाता है इसलिए देहाभिमान गलिते विज्ञाते परमात्मन यत्र यत्र मनोज जाति तत्र तत्र समाधया अभी 10 मिनट बाकी है अच्छा मेरी शक्ल से नफरत हो तो चलिए चली जाओ कोई बात नहीं। ठीक है। हां। कोई बात नहीं। अच्छा तुम्हें घर से ज्यादा प्यार है तो चली जाओ। हमसे नफरत नहीं प्यार ज्यादा है। और एक बात देखो चाहे जितना प्यार हो कोई तुम्हारे साथ रहने वाला नहीं है। जो दिखाई देता है इनसे किया गया प्यार धोखा है। जो नहीं दिखाई देता जिसको मुश्किल से ढूंढना है। जिसको पाने पर जिसकी याद से ही दुख जाता है उसकी याद करनी पड़ेगी। हम जबरदस्ती याद तो नहीं करा सकते पर उसकी याद की महिमा का पता चला। उसकी याद का और इसकी याद की दुर्दशा देख ली। इसकी याद आते आज भी आज भी देह की तरफ ध्यान हो तो भय आ जाता है। और नहीं फिर देख लो नींद आ जाए भय आ जाए। गहरी नींद में कहां सा भय? कोई बंदूक लिए खड़ा कोई मतलब नहीं। जब तक संसार दिखता नहीं भय आता नहीं। और जब तक परमात्मा अनुभव में आता नहीं अपोक्ष अनुभव तब तक भय जाता नहीं। इसलिए सब भय का कारण अज्ञान है और देहात्मक भाव है और सब भयों की निवृत्ति भय भव हरण और भव दुख हारी चाहे नाम कोई रख दो सैकड़ों नाम रामायण में है पर जिसके स्मरण से जाता है वह हजारों नहीं है वो एक ही है वो सब में है इसलिए उस सब में रहने वाले को देखो कौन है यहां तक देखो भले तुम मेरी कथा सुनने आए ना यह बात जरा सुन लो मेरी कथा सुनने आए किस आशा से कि हम मुक्त हो जाएंगे अच्छा ये बताओ मैं इस शरीर में रह के किसका स्मरण करता हूं जब भय नहीं आता और भय आता है तो किसका स्मरण करता हूं और मैं जब घर बार छोड़कर आया गुरु के पास क्या पाया इधर ध्यान दूं तो अभी भी भय आ जाता है तो जिससे मेरा भय गया है वही दवा तुम्हें दूं कि दूसरी दे चलूं? हां हमारा भय गुरुओं की वाणी के द्वारा इसके स्मरण से आया। और तुम्हें भी कहते हैं तन के रहते तन छोड़ने के बाद स्मरण नहीं बनेगा। यदि तन के बिना स्मरण बनता तो मनुष्य जन्म के पहले ही स्मरण बन जाता। बिना मनुष्य देह के स्मरण नहीं बनता। इसलिए देह नहीं छोड़ना। देह रहते थोड़ी देर के लिए देह की तरफ से ध्यान हटाना है थोड़ी देर के लिए। और थोड़ी देर के लिए मन के संकल्पों का त्याग करना है। थोड़ी देर के लिए और त्याग करके उसी गैप में उसी मन की संकल्प अवस्था में उसे खोजना है कि मैं कौन हूं। और मैं का पता लगते फिर अंत में देखना यह जो मैं है वह केवल देह में नहीं रहती। इस मैं में संपूर्ण दुनिया रहती है। जिसमें दुनिया रहती है जो सारी दुनिया में रहता है। मैं कोई देह नहीं हूं। मैं कोई इस देह में रहने वाला मन नहीं हूं। इस देह में होने वाले मैं मैं का स्न नहीं हूं। हां यह मैं मैंम का स्फुरण उसी एक से होता है। उसी से औरों का स्फुरण होता है। एक ही चैतन्य से सभी जीव सभी जीव क्या है? बार बीच इ गावह वेदा जैसे जल में लहर ऐसे जितने जीव हैं ये जीव फुर रहे लहर हैं। तो जहां लहर होती है वहां पानी नहीं होता। तो जहां जीव जीव जीव फुर रहे हैं। जीव बार बीच बारी में जैसे बीच माने लहर ऐसे ही ब्रह्म में जीव तो जितने जीव हैं ये सब किस में है ब्रह्म में किस जीव के पास ब्रह्म नहीं है और कौन जीव ब्रह्म से अलग है ये जीव का पहली मूढ़ता है कि देह को माना जब से जीव देह गेह निज मान्यो तब से जीव ई बिलगानो जब से जीव ने देह को मैं माना ये विलग हो गया तो पहले देह को मैं ना माने और फिर थोड़ा मन का संकल्प छोड़े फिर जीव क्या निकलेगा लहर खो जाएगी क्या बचेगा पानी अब देखो लहर में पानी में भेद क्या है भी और लहर शांत हो गई तो क्या है पानी अच्छा लहर खो जावे फिर लहर मिलेगी पानी में ये जीव क्या है? बार बीच का मतलब है भी और नहीं भी। यह लगते हैं अनेक। पर जब तक देह के साथ जुड़े हैं ये बार-बार बार-बार होते रहते हैं। एक बार पता चल जाए देह का अभिमान छूटे तो जीवो ब्रह्म ना परा जीव ब्रह्म ही है और कुछ नहीं है। इतना ही कहकर अभी समाप्त करते हैं। ओम शांति।
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इसका उद्देश्य केवल आत्मविकास, आध्यात्मिकता की भावना को प्रेरित करना है, न कि व्यावसायिक लाभ।
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