सनातन परंपरा कहती है अतिथि देवो भवः। अतिथि देवता होता है। हमारे दरवाजे पर आया भिखारी भी अतिथि है। धर्म कहता है, अतिथि का सत्कार और सम्मान जरूरी है। अगर अतिथि का सम्मान नहीं किया गया, तो पुण्य का नाश होता है। आचार्य विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र में अतिथि सत्कार के बारे में काफी लिखा है। वेदों से लेकर महाभारत तक, गृहस्थों के लिए जो नियम बताए गए हैं, उनमें अतिथि, संत और भिक्षुक तीनों के सम्मान की बात अनिवार्य बताई गई है।
महाभारत के शांति पर्व में गृहस्थों के लिए कहा गया है….
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते।
स दत्त्वा दुष्कृतम् तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।। (महाभारत)
अर्थ – जिस गृह्स्थ के घर से कोई अतिथि बिना सम्मान, या भिक्षुक बिना भिक्षा के निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर, उसका पुण्य लेकर चला जाता है।
चाणक्य ने कहा है आपके घर अगर शत्रु भी आ जाए तो उसका सम्मान करना चाहिए। घर आए इंसान का अगर अपमान होता है तो वो अपने सारे पाप आपके घर छोड़कर आपके सारे पुण्य अपने साथ ले जाता है। व्यवहारिक रुप से समझें तो ये सत्य भी है। भगवतगीता में कृष्ण ने कहा है कि समस्त चराचर में उन्हीं का अंश है। मतलब आपके सामने जो भी आ रहा है, आपके घर जो भी आ रहा है वो परमात्मां का अंश है।
उसका सम्मान करके आप परमात्मा का आदर करते हैं। अगर आप किसी का अपमान करके अपने घर से भेजते हैं तो उस समय उसके मन में जितने नकारात्मक भाव आते हैं वो आपके घर में ही छोड़कर जाता है। इसलिए, हमारे ग्रंथों ने अतिथि को भगवान माना है। उसका सम्मान करना आवश्यक बताया है। यही हमारी सनातन परंपरा है।
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