महाभारत के वनपर्व नीति, धर्म की बहुत बातें कही गई हैं। वनपर्व महाभारत में तब आता है, जब जुए में हार चुके पांडव 12 वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास पर भेजे जाते हैं। वनवास के दौरान पांचों पांडव और द्रौपदी के संवादों में नीति की कई बातें की गई हैं।
यस्य चार्थार्थमेवार्थः स च नार्थस्य कोविदः।
रक्षेत भृतकोरण्ये यथा गास्यादृगेव सः।। (महाभारत, वनपर्व, भीम-युधिष्ठिर संवाद)
अर्थ – जिसका धन केवल धन के लिए ही है, दान आदि के लिए नहीं। वह धन के तत्व को नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वाला) वन में केवल गौओं की रक्षा ही कर्ता है, वैसे ही वह भी दूसरों के लिए धन का केवल रक्षक मात्र है।
हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं कि धन की तीन गतियां होती हैं, पहली दान, दूसरी भोग और तीसरी नाश। जो लोग धन कमाते हैं लेकिन दान नहीं करते और ना ही उसका उपभोग करते हैं, केवल कमाने में ही लगे रहते हैं, उनके धन का नाश हो जाता है या फिर दूसरे ही उस धन का सुख भोगते हैं। अतः धन कमाने के साथ आवश्यक है कि उससे दान किया जाए, साथ ही अपने सुख के लिए उसका व्यय भी हो। तभी धन कमाने ठीक है, अन्यथा सिर्फ संचय के लिए धन कमाने से कोई लाभ नहीं क्योंकि उसका उपभोग हमेशा दूसरे ही करते हैं।
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