हिन्दू कैलेंडर में ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को कबीर जयंती के रूप में मनाया जाता है। कबीर का जन्म संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। जो इस बार शुक्रवार, 5 जून को है। इस दिन ही संत कबीर दास जयंती मनाई जाएगी। इन्हें कबीर साहब या संत कबीर दास भी कहा जाता है। इनके नाम पर कबीरपंथ संप्रदाय प्रचलित है। इस संप्रदाय के लोग इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं।
अंधविश्वास खत्म करने के लिए मगहर में शरीर छोड़ा
संत कबीर दास ने अपना पूरा जीवन काशी में बिताया लेकिन जीवन के आखिरी दिनों में वो मगहर चले गए थे। ऐसा उन्होंने मगहर को लेकर समाज में फैले अंधविश्वास को खत्म करने के लिए किया था। मगहर के बारे में कहा जाता था कि यहां मरने वाला व्यक्ति नरक में जाता है। कबीर दास ने इस अंधविश्वास को खत्म करने के लिए मगहर में ही 1518 में शरीर छोड़ा था।
अंधविश्वास और आडंबर के विरोधी
संत कबीर अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड और व्यक्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। संत कबीर दास जी समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में मानव को एक समान रहने और सद्भाव बनाने का प्रयास किया। सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव सेवा में व्यतीत किया और अपने जीवन के अंतिम समय तक इसी प्रयास में लगे रहे।
निर्गुण ब्रह्म के उपासक
कबीर ने एक ही ईश्वर को माना। वह धर्म व पूजा के नाम पर आडंबरों के विरोधी थे। उन्होंने ब्रह्म के लिए राम, हरि आदि शब्दों का प्रयोग किया लेकिन वे सब ब्रह्म के ही अन्य नाम हैं। उन्होंने ज्ञान का मार्ग दिखाया जिसमें गुरु को सबसे उपर ही रखा। कबीर स्वच्छंद विचारक थे। कबीर ने जिस भाषा में लिखा, वह लोक प्रचलित और सरल थी।
दोनों संप्रदायों से प्राप्त था सम्मान
- मगहर में अब कबीर की समाधि भी है और उनकी मजार भी। कबीरदास जी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदाय के लोग मानते थे और उनका सम्मान करते थे।
- मान्यता है कि मृत्यु के बाद कबीर दास के शव को लेकर विवाद हो गया था। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।
- कहा जाता है कि जब उनके शव पर से चादर हटाई, तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया।
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