एक सच्चा गुरु अपनी गलतियों से सिखता है और वह चाहता है कि जो गलतियां उसने की है, वह उसका शिष्य न करे। गुरु शिष्य की कमियों को दूर करके, उसकी योग्यता को निखारते हैं। ये बात शिष्य को समझनी चाहिए। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है।
पुराने समय में एक गुरु और शिष्य के साथ मूर्तियां बनाने का काम करते थे। मूर्तियां बेचकर उनका जीवन चल रहा था। शिष्य बहुत अच्छी मूर्तियां बनाने लगा था और उसकी मूर्तियों का ज्यादा पैसा भी मिल रहा था। गुरु की मूर्तियों की ज्यादा कीमत नहीं मिलती थी।
शिष्य को लगने लगा था कि वह गुरु से भी अच्छा मूर्तिकार बन गया है। इस बात का घमंड होने लगा। गुरु उसे रोज यही कहते थे कि बेटा और मन लगाकर सफाई से काम करो। तुम्हारी मूर्तियों में अभी भी कमी रहती है।
गुरु से अपने काम की आलोचना सुनकर शिष्य को लगता था कि गुरुजी की मूर्तियां मुझसे कम कीमत में बिकती हैं, शायद इसीलिए गुरु मुझसे जलने लगे हैं। जब कुछ दिनों तक लगातार गुरु ने उसे अच्छा काम करने की सलाह दी तो एक दिन शिष्य को गुस्सा आ गया।
शिष्य ने गुरु से कहा कि गुरुजी मैं आपसे अच्छी मूर्तियां बनाता हूं, तभी तो मेरी मूर्तियां ज्यादा कीमत में बिकती हैं, फिर भी आप मुझे ही सुधार करने के लिए कहते हैं। गुरु को समझ आ गया कि शिष्य में घमंडी हो गया है।
गुरु ने शांति से कहा कि बेटा जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब मेरी मूर्तियां भी मेरे गुरु की मूर्तियों से ज्यादा दाम में बिकती थीं। एक दिन मैंने भी तुम्हारी ही तरह मेरे गुरु से यही बातें कही थीं। उस दिन के बाद से गुरु ने मुझे सलाह देना बंद कर दिया। मेरी योग्यता निखर नहीं सकी। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ भी वही हो जो मेरे साथ हुआ था।
गुरु की ये बात सुनकर शिष्य को अपनी गलती का अहसास हो गया, उसने क्षमा मांगी। इसके बाद वह गुरु की हर आज्ञा का पालन करता और धीरे-धीरे उसे अपनी कला की वजह से दूर-दूर तक ख्याति मिलने लगी।
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